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हिन्दी का पहला अखबार और हिन्दी पत्रकारिता

पराधीनता का दंश झेल रहे भारतीय जनमानस में स्वाधीनता प्राप्ति की व्याकुलता अन्दर ही अन्दर करवटें तो लेने लगी थी, किन्तु स्पस्ट राह नहीं सूझ रही थी। अंग्रेजों का आतंक इतना कि आपस मे भी मुक्ति संग्राम की बातें करने से डरते थे। डर और आतंक के ऐसे घनघोर अन्धकार के बीच एक युवक के धैर्य की सीमा टूट गयी और जनमानस की व्याकुलता को जुबान देने का संकल्प लिया। वह युवक थे, उत्तर प्रदेश के कानपुर निवासी पण्डित जुगल किशोर शुक्ल।
शुक्ल जी ने कलकत्ता में आजीविका के लिए नौकरी करते हुए वर्ष 1826 में कलकत्ता के कालू टोला मुहल्ले से एक साप्ताहिक अखबार “उदन्त मार्तण्ड” प्रकाशित किया। उदन्त मार्तण्ड का प्रथम अंक आज ही के दिन 30 मई 1826 को अस्तित्व में आया, इसलिए 30 मई की स्मृति में हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन पं0 जुगल किशोर शुक्ल को व उदन्त मार्तण्ड को व इनके साहस को अभिवादन के लिए स्वतः नमन के भाव उद्भूत हो उठते हैं।
आज हिन्दी प्रथम अखबार की 195 वीं वर्षगाँठ पर जब हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मना रहे हैं तो कुछ चिन्तन भी मन मस्तिष्क को उद्वेलित कर रहा है। ठीक पाँच वर्ष बाद हम दूसरी शताब्दी मना रहे होंगे तब कुछ सवाल अपने आप हमसे जवाब माँगेगा ? हमारे पास क्या उत्तर होगा सोचकर मेरे अन्दर की पत्रकारिता हिल जाती है। जवाब तो खोजे और गढ़े ही जायेंगे। एक सवाल मुझे अभी से व्याकुल करता है और यह व्याकुलता ठीक वैसे ही है जैसे 30 मई 1826 के पहले थी। सघन अन्धकार में राह का न सूझना। मेरा सवाल यह है कि वृहद जनहित के सापेक्ष, शासन सत्ता के घमण्ड और गलत निर्णय की स्वस्थ समीक्षा कर जनमानस का पथप्रदर्शन और शासन सत्ता को दर्पण दिखाने का उद्देश्य 195 साल बाद कितना भटकाव में है..?
शायद हिन्दी पत्रकारिता का एक अदृश्य और अप्रकट उद्देश्य जाने-अनजाने शासन सत्ता की पक्षधरता का पलड़ा भारी होना अपने आप में भटकाव है। यही भटकाव मेरे अन्दर की व्याकुलता का कारण है। स्वाधीन भारत में अपने विचार प्रकट करने की आजादी के तहत विचार प्रकट करना धर्म समंझा है किंतु जुगलकिशोर शुक्ल जी जैसा साहस नहीं और न ही समर्पण है कि संसाधन के अभाव में बढ़ चले लक्ष्य की ओर।
पराधीन भारत में हिन्दी पत्रकारिता से अर्थार्जन व आजीविका की अपेक्षा न थी बल्कि स्वाधीनता के जुनून में आमग्न लोग मिशन भाव से अखबार को समय और श्रम देते थे। समय बदला है, परिस्थितियाँ बदली हैं, लक्ष्य बदले हैं और शायद नीयत भी बदली है। हिंदी के पहले अखबार और 195 साल बाद आज के अखबार की नीति, नीयत और लक्ष्य पर जहाँ एक स्वस्थ परिचर्चा जरूरी है तो वहीं हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर बहुत बहुत बधाई देना भी कम जरूरी नहीं।
लेखक- प्रदीप सारंग

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